Independence day special:बटुकेश्वर दत्त के जीवन से जुडे अनछुए किस्से, पढ़िए विस्तार से
18 नवंबर, 1910 को बंगाल के एक छोटे से गांव बर्दवान में गोष्ठा बिहारी द्त के घर बटुकेश्वर दत्ता का जन्म होता है. पिता रेलवे में काम करते थे. पूरा बचपन कानपुर की गलियों में बीता

Biography of Batukeshwar Dutt: कुछ नाम इतिहास की किताबों में मोटे अक्षरों में दर्ज हो जाते हैं. कुछ ऐसे होते हैं,,, जो अपने खून से आज़ादी की इबारत लिख देते हैं. मगर पन्नों के कोनों में दबे रह जाते हैं. चुपचाप जलने वाला वो दीपक जिसने अपनी रोशनी से एक पूरी पीढ़ी को राह दिखाई हो.. एक नाम जो भागत सिंह के साथ खड़ा रहा, लेकिन गुमनामी की अंधेरी में खो गया. एक ऐसा क्रांतिकारी जो फांसी की सजा न मिलने पर दुखी और अपमानित महसूस कर रहा था. जीवन यापन करने के लिए कभी सिगरेट कंपनी में एजेंट बना तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर पटना की सड़कों की धूल छानी...आज इस खास मौके पर बात करेंगे महान स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त की (Batukeshwar Dutt)
story of Batukeshwar Dutt: 18 नवंबर, 1910 को बंगाल के एक छोटे से गांव बर्दवान में गोष्ठा बिहारी द्त के घर बटुकेश्वर दत्ता का जन्म होता है. पिता रेलवे में काम करते थे. पूरा बचपन कानपुर की गलियों में बीता.... बटुकेश्वर दत्त के बचपन का एक किस्सा है. वे स्कूल जा रहे थे. उन्होंने देखा कि एक अंग्रेज भारतीय बच्चे को बेरहमी से पीट रहा है. इसे देखकर, उनके मन में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा भर गया. 1919 में हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड का भी उनके जीवन में गहरा असर हुआ. इन घटनाओं ने उन्हें एक क्रांतिकारी बनने और देश की आजादी के लिए लड़ने को मजबूर कर दिया. 1924 में कानपुर कॉलेज की पढ़ाई के लिए गए तो भगत सिंह ( Bhagat Singh) से मुलाकात हुई. पहली ही मुलाकात में भगत सिंह से इतने प्रभावित हुए... कि उनके क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन से जुड़ गए.... और बम बनाना सिख लिया. क्रांतिकारियों ने आगरा में एक बम फैक्ट्री बनाई... जिसमें बटुकेश्वर दत्त ने अहम भूमिका निभाई. ये वो समय था जब अंग्रेजों ने संसद में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया था...ये ऐसा कानून था जो बिना मुकदमा चलाए संदिग्ध व्यक्तियों को हिरासत में लेने की अनुमति देता था. मकसद था स्वतंत्रता सेनानियों पर नकेल कसना और पुलिस को ज्यादा से ज्यादा अधिकार देना.. बटुकेश्वर दत्त का खून खौल उठा... भगत सिंह के साथ मिलकर संसद में बम फेंकने की योजना बना डाली. ये ध्यान खींचने के लिए किए गए धमाके थे. क्रांतिकारियों ने अपने विचार रखने के लिए पर्चे भी फेंके थे... विरोध के चलते बिल पारित नहीं हो पाया. ये क्रांतिकारी भागे नहीं और स्वेच्छा से गिरफ्तार हो गए.
बाद में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी हुई,,,जबकि, बटुकेश्वर दत्त को काला पानी.. फांसी की सजा न मिलने से बटुकेश्वर दत्त दुखी और अपमानित महसूस कर रहे थे. यह बात उनके दोस्त भगत सिंह को पता चली...तो भगत सिंह ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी. इस चिट्ठी का मजमून यह था.. कि वे दुनिया को यह दिखाएं. कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते...बल्कि,, जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं...भगत सिंह ने उन्हें समझाया.कि मृत्यु सिर्फ सांसारिक तकलीफों से मुक्ति का कारण नहीं बननी चाहिए. दोस्त बटुकेश्वर दत्त समझ गए. काला पानी की सजा के तहत उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया. वहां से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना लाए गए.... 1938 में उनकी रिहाई हो गई. कालापानी की सजा के दौरान उन्हें टीबी हो गया... लेकिन, देश भक्ति की आग सीने में धधकती रही. जल्द ही महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. चार साल बाद 1945 में रिहाई हुई. 1947 में देश आजाद हो गया. नवम्बर, 1947 में बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और पटना में परिवार के साथ रहने लगे...लेकिन,, उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा. कभी सिगरेट कंपनी के एजेंट तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर संघर्ष करते रहे... तभी का एक किस्सा है. पटना में बसों के परमीट मिल रहे थे. बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया था. परमिट के लिए जब पटना कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो. उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण मांगा गया. ये बात राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को पता चली. तो गुस्सा हुए और कमिश्नर को जोरदार फटकार लगाई..
फिर साल आया 1964 वटुकेश्वर दत्त अचानक बिमार हुए. फेफड़ों में तेज दर्द और लगातार खांसी ने उनकी तबियत बिगाड़ दी. पटना के सरकारी अस्पताल में उन्हे कोई पूछ नहीं रहा था. उनके मित्र चमन लाल आजाद ने एक लेख लिखा. कि क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत जैसे देश में जन्म लेना चाहिए. परमात्मा ने इतने बडे शूरविर को हमारे देश में पैदा कर भारी भूल की है. खेद की बात है.. कि जिसने देश को आजाद कराने के लिए प्राणों को दांव पर लगा दिया. फंसी के फंदे से बालबाल बचा... वो आज अस्पताल में नितांत अकेला पड़ा एठिया रगड़ रहा है... इस लेख के बाद तत्कालिन गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाब के केंद्रिय मंत्री भीमलाल सच्चर ने बटुकेश्वर दत्त से मुलाकात की. और उनके इलाज के लिए बिहार सरकार को चेक भेजा. ये भी कहा कि अगर पटना में उनका इलाज ठंग से नहीं हो सकता,,,तो इलाज के लिए उन्हें चंड़ीगढ़ या दिल्ली भेंजे... पंजाब सरकार उनके इलाज का पूरा खर्च उड़ाएगी... इस पत्र के बाद बिहार सरकार हरकत में आई,,,लेकिन, तब तक स्तिथि बिगड़ चुकी थी. 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया. दिल्ली पहुंचने पर पत्रकारों से उन्होंने कहा था,,,कि मैं सपने में भी नहीं सोचा था. कि जिस दिल्ली में बम फोड़ा है. वहीं अपाहिज की तरह स्ट्रैचर पर आऊंगा. वटुकेश्वर दत्त को सफदरगंज अस्पताल में भर्ती कराया गया,,,जहां, पता चला,,, कि उन्हें कैंसर है. और उनकी जिंदगी के कुछ ही दिन बचे हैं... कुछ समय के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री राम किशन उनसे मिलने पहुंचे. छलछलाती आंखों से वटुकेश्वर दत्त ने मुख्यमंत्री से बोले,,, कि मेरी अंतिम इच्छा है,,,कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए. उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई... 17 जुलाई को वो कोमा में चले गए. 20 जुलाई 1965 की रात 1 बजे यह महान क्रांतिकारी मां भारती की गोद में हमेशा–हमेशा के लिए सो गया...वटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा को सम्मान किया गया. और उनका अंतिम संस्कार भारत पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राज गुरु और सुखदेव की समाधि के पास ही किया गया.
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बटुकेश्वर दत्त कोई नाम नहीं…वो एक चेतावनी हैं. एक सवाल हैं. जो आज भी हवा में गुंजता है. और जोर–जोर से कहता है कि क्या आजादी की लड़ाई,,,जीतना ही काफी था...या उन सच्चे सिपाहियों को पहचानना भी,, हमारी ज़िम्मेदारी थी? भगत सिंह को देश ने सर आंखों पर बिठाया और बिठाना भी चाहिए. मगर उनसे कदम से कदम मिलाकर चल रहे उनके साथी को जिसने बम नहीं अपना समूचा जीवन चुपचाप झोंक दिया. हमारी आजादी के लिए... हम भूल गए उन्हें…मगर उनका जीवन हमें हर रोज़ याद दिलाता है. कि देश प्रेम सिर्फ़ नारा नहीं बलिदान भी होता है.