चार पीढ़ियों से जिंदा है सुपारी पर देवशिल्प की परंपरा, लेकिन बाजार और मान्यता से दूर

रीवा की सुपारी शिल्पकला, जो कभी देश और विदेश में पहचान रखती थी, आज उपेक्षा और संसाधनों की कमी के कारण धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर है। फोर्ट रोड निवासी अभिषेक कुंदेर चौथी पीढ़ी के कलाकार हैं, जिनके दादा स्व. रामसिया कुंदेर को 1968 में राष्ट्रीय सम्मान मिला था।

चार पीढ़ियों से जिंदा है सुपारी पर देवशिल्प की परंपरा, लेकिन बाजार और मान्यता से दूर

ऋषभ पांडेय 

 रीवा शहर की गलियों में एक ऐसा घर है, जहां उंगलियों से इतिहास गढ़ा गया। न चाक, न कोई भारी-भरकम औजार,बस एक सुपाड़ी और हुनर ऐसा कि लकड़ी की तरह तराशी गई वह छोटी सी चीज़ भगवान राम बन गई, सीता बन गई, कृष्ण बन गए।

कभी यही कला इस शहर की पहचान थी। आज वही पहचान दम तोड़ रही है। शहर के फ़ोर्ट रोड पर रहने वाले अभिषेक कुंदेर, उस वंश के चौथी पीढ़ी के कलाकार हैं, जिसने कभी सुपाड़ी पर शिल्पकारी को विश्व मंच तक पहुंचाया था। उनके दादा स्वर्गीय रामसिया कुंदेर को इस अद्भुत कारीगरी के लिए 1968 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय सम्मान से नवाज़ा था। 

लेकिन अब वक्त की मार, बेरुखी और सरकारी उपेक्षा ने इस परंपरा को हाशिये पर ला खड़ा किया है। 60 और 70 के दशक में, जब भारत में हस्तशिल्प का बाज़ार आधुनिकता की ओर बढ़ रहा था, तब स्व. रामसिया कुंदेर सुपाड़ी को हथेली में लेकर उस पर देवताओं की आकृति उकेरते थे।

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राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, गणेश इन सबकी सूक्ष्म मूर्तियां वे एक-एक सप्ताह में गढ़ते थे। उनके बनाए शिल्प न सिर्फ भारत, बल्कि जर्मनी, अमेरिका, थाईलैंड, नेपाल जैसे देशों में भी निर्यात हुए। सुपाड़ी से बना गणेश जब बर्लिन की एक कला प्रदर्शनी में रखा गया, तो विदेशी शिल्पप्रेमी अचंभे में रह गए कि इतनी बारीकी कैसे संभव है।

कला जिंदा है, लेकिन ज़िंदगी मुश्किल में

रामसिया के पोते अभिषेक कुंदेर कहते हैं,हम रोज़ 8–10 घंटे सुपाड़ी के साथ बैठे रहते हैं। एक मूर्ति में 2–3 दिन लगते हैं, लेकिन लोग इसे अब कला नहीं, बस एक हस्तकला आइटम मानते हैं। हमारे पास न बाज़ार है, न मंच, न मदद। हमसे कोई सिर्फ तब संपर्क करता है जब किसी को अनोखा तोहफा बनवाना हो।

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अभिषेक के पिता राममिलन अब वृद्ध हो चले हैं, लेकिन कला से नाता नहीं तोड़ा। अभिषेक के दो भाई प्रदीप और यश भी इस शिल्प में लगे हैं। तीनों भाइयों की कोशिश है कि 100 साल पुरानी विरासत जीवित रहे। लेकिन सवाल बड़ा है क्या अगली पीढ़ी इसे आगे बढ़ाएगी? अपने बच्चों को क्या सिखाएं?

सुपाड़ी तराशना या दुकान में सेल्समैन बनना? अगर सरकार और समाज ने साथ नहीं दिया तो अगली पीढ़ी इसे केवल किताबों में पढ़ेगी। 

न बाज़ार, न मंच, न मान्यता

रीवा की सुपाड़ी कला को न अब तक कोई राजकीय हस्तशिल्प मान्यता मिली, न कोई सरकारी प्रशिक्षण केंद्र शुरू हुआ। अभिषेक की मांगें भी बहुत बड़ी नहीं हैं, सुपाड़ी शिल्प को राजकीय हस्तशिल्प का दर्जा दिया जाए। प्रशिक्षण केंद्र खोले जाएं ताकि युवा इसे सीख सकें।

हर जिले में स्थायी बिक्री केंद्र हों, जहां कलाकारों के उत्पाद सीधे बिक सकें। राष्ट्रीय कला मेलों और प्रदर्शनियों में इस पारंपरिक शिल्प को स्थान दिया जाए। उन्होंने बताया कि कई बार जिला प्रशासन और प्रदेश सरकार को पत्र लिखे, नेताओं से मिले, लेकिन सिर्फ आश्वासन मिला।

कैसे हुई शुरुआत?

रीवा में सुपारी के खिलौने बनाने की शुरुआत भी बड़ी रोचक है बताया जाता है कि कुंदेर परिवार रीवा रियासत में लकड़ी का काम करते थे, एक बार रीवा महाराजा गुलाब सिंह कहीं जा रहे थे, तभी उन्होंने लकड़ी के खराद का काम होते देखा.

चूंकि महाराजा पान खाने के शौकीन थे, इसलिए उन्होंने अपने एक आदमी को भेजकर सुपारी छीलने के लिए कहा, इस पर कुंदेर परिवार उन्हें सुपारी छीलकर देने लगा,तभी कुंदेर परिवार के दिमाग में आया, क्यों ना सुपारी की कोई वस्तु बनाई जाए और तब से सुपारी के खिलौने बनाने का सिलसिला शुरू हुआ, जो अब तक चला आ रहा है, अब अभिषेक कुंदेर अपने परिवार की परंपरा निभा रहे हैं.

उन्होंने बताया कि, 1942 में उनके दादा भगवानदीन कुंदेर ने सुपारी का सिंदूरदान बनाकर महाराजा गुलाब सिंह को भेंट किया था, इसके पहले महाराजा के आदेश पर ही राज दरबार के लिए लच्छेदार सुपारी काटी जाती थी,महाराजा को सुपारी की कलाकृति से सुसज्जित वाकिंग स्टिक भी गिफ्ट की गई. जिस पर उनके दादा को 51 रुपए का इनाम दिया गया था। 

 जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक को भेंट की गई थीं सुपारी की अद्भुत कलाकृतियां

कुंदेर परिवार ने बताया कि, साल 1968 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रीवा आईं थीं, इस दौरान उन्हें सुपारी से निर्मित कलाकृतियां भेंट की गई थीं, दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के पैनल में सुपारी के खिलौने बनाने वाले स्व रामसिया कुंदेर को भी शामिल किया था, इंदिरा गांधी के अलावा जवाहरलाल नेहरू, राजीव गांधी सहित मुख्यमंत्री व अन्य मंत्री सहित कई लोगों को सुपारी से बनी कलाकृतियां भेंट की जा चुकी हैं।