पत्तों की तरह बिखर रही थी सरकार, पचमढ़ी में ताश खेल रहा था मुख्यमंत्री
1967 का साल, मध्यप्रदेश की राजनीति में एक नाटकीय मोड़ लेकर आया. यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन की कहानी नहीं थी, बल्कि यह लोकतंत्र, वफादारी, आत्मसम्मान और महत्वाकांक्षा के टकराव की पटकथा थी. इस पूरे घटनाक्रम की केंद्र बिंदु थीं,
साल था 1967…सीन किसी राजनीतिक थ्रिलर फिल्म जैसा था.MLA रेस्ट हाउस से विधायक बंदूक की नोक पर उठाए जा रहे थे.. डर और लालच के बीच लिखी जा रही थी सत्ता की सबसे बड़ी स्क्रिप्ट. जिसकी राइटर और डायरेक्टर दोनों ग्वालियर की राजमाता सिंधिया थीं.धन और बल का फुल इंतजाम था....हर कहानी की तरह इस कहानी में भी एक नायक था. जो पचमढ़ी की सुन्दर वादियों में बैठा ताश खेल रहा था....साथियों ने बताया सरकार गिराने की तैयारी चल रही है. कुछ करिए.....तो नायक कहता है, शुभस्य शीघ्रम....यदि किसी ने अपने ईमान और जमीर का सौदा कर लिया है तो. तो उसे कतई नहीं रोकना चाहिए.. तकराहट सत्ता की नहीं आत्मसम्मान की थी... एक तरफ राजशाही का स्वाद चख चुकी राजमाता थीं. तो दूसरी तरफ लोकतंत्र को भगवान मनाने वाले डीपी मिश्र..पूरा पूरा कहें तो द्वारका प्रसाद मिश्र.हां वहीं द्रारका प्रसाद मिश्र जो नेहरू से लड़ गए थे.और कह दिया था कि आपकी नीतियों की वजह से चीन एक दिन हमारा दुश्मन बन जाएगा....लेकिन ये राजनीति है. इसके शिकार अक्सर लोग अपनों से होते हैं. उन्हीं के विधायक....मंत्री पद नहीं मिलने से नाराज हो गए... और इतने नाराज की बंदूक के दम पर विधायकों को अगवा कर लिया.... और छाती में बंदूक की नोक रखकर दलबदल वाले पेपर पर साइन करवा लिया....जी हां हम विंध्य के रामपुर बघेलान के गोविंद नारायण सिंह की बात कर रहे हैं. जो बाद में मुख्यमंत्री बने.. सब बताएंगे कैसे बनी थी सविंद सरकार , क्यों विधायकों को घास में सोना पड़ा था. डकैतों ने हाथ में राइफल लेकर क्यों की थी विधायकों की पहरेदारी.. तो आज, कहानी उस सरकार की...जो सौदेबाजी की कोख से जन्मी थी.
बरस था 1962. देश में लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका था. हर बड़ा नेता मैदान में उतरने की तैयारी कर रहा था....लेकिन ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया, इस बार चुनाव नहीं लड़ना चाहती थीं... जब ये खबर पंडित जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची. तो उन्होंने प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू को अपना दूत बनाकर राजमाता के पास भेजा....लेकिन राजमाता टस से मस नहीं हुईं. फिर लाल बहादुर शास्त्री ने फोन किया. पर जवाब वही था. मैं प्रचार नहीं कर पाऊंगी, इसलिए चुनाव नहीं लड़ना चाहती. लेकिन नेहरू हर हाल में राजमाता को चुनाव लड़वाना चहते थे. नेहरू ने खुद राजमाता को फोन किया... और कहा- अगर आप प्रचार नहीं कर सकतीं, तो मैं खुद आपके लिए प्रचार करूंगा, लेकिन आपको चुनाव लड़ना होगा....राजमाता मान गईं. उन्होंने, 1962 में ग्वालियर और गुना से चुनाव लड़ा. और दोनों जगह से भारी बहुमत से जीत हासिल की.

साल 1962 में ही करीब एक दशक बाद द्वारिका प्रसाद मिश्र की कांग्रेस में वापसी हुई. जिन्हें राजनीति का चाणक्य कहा जाता था. वो इंदिरा गांधी के बेहद करीबी थे... और आगे चलकर उन्होंने इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाने में भी, बड़ी भूमिका निभाई.. 1963 में डीपी मिश्र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, मिश्र के अक्खड़ मिजाज के कारण ज्यादा लोग उनसे नहीं जुड़ते थे.. लेकिन उनके व्यक्तित्व का प्रभाव ऐसा था कि उन्हें कोई नजर अंदाज भी नहीं कर पाता था. द्वारका प्रसाद मिश्र और राजमाता सिंधिया के संबंध शुरू में सामान्य थे. डीपी मिश्र अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि जब मैं 1963 में मुख्य मंत्री बना तो राजमाता ने फोन कर कहा कि पहला नागरिक अभिनंदन ग्वालियर में ही होना चाहिए.. लेकिन डीपी मिश्र राजशाही के शख्त खिलाफ थे तो समय के साथ टकराव भी बढ़ता गया

फिर साल आया 1966 पचमढ़ी में युवक कांग्रेस का सम्मेलन चल रहा था. मंच पर थे मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र...और पहली पंक्ति में बैठी थीं...ग्वालियर की राजमाता सिंधिया, डीपी मिश्र ने भाषण के दौरान कहा. ये राजे-रजवाड़े कभी भी कांग्रेस के नहीं हो सकते.. लोकतंत्र में जबरन शामिल हुए हैं, लेकिन इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. हम इन्हें निष्क्रिय कर देंगे.. इतना सुनते ही सबकी निगाहें राजमाता की ओर घूम गईं... एक पल में राजनीति ने उन्हें मजाक का केन्द्र बना दिया. राजमाता अपमानित हुईं, बाद में जब राजमाता ने मिश्र से सफाई मांगी, तो उन्होंने बात को टाल दिया.. कुछ ही महीनों बाद, ग्वालियर में छात्र आंदोलन हुआ.. दो छात्रों की मौत हुई. राजमाता छात्रों के साथ खड़ी रहीं, मिश्र आंदोलन को बलपूर्वक दबाने के पक्ष में थे.. दोनों के बीच की खाई और गहरी हो गई....राजमाता चाहती थीं, कि मध्यभारत की हर सीट के उम्मीदवार का चुनाव वो खुद करें.... मिश्र को लगता था, लोकतंत्र अब राजा-रजवाड़ों के अहंकार से बड़ा है.... मिश्र ने दो टूक कह दिया- टिकट कांग्रेस संगठन देगा, कोई महारानी नहीं. इस बात से वो उखड़ गईं और कांग्रेस को अलविदा कह दिया..

मायाराम सुरजान अपनी किताब मुख्यमंत्री मध्य प्रदेश में लिखते हैं. 1967 में दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद डीपी मिश्र ने जो मंत्रिमंडल बनाया.. उसमें कई क्षेत्रों में निराशा हुई. गोविंदनारायण सिंह को मिश्र ने दोनों बार मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी.. वहीं 1963 में कैबिनेट में शामिल नहीं किए गए श्यामाचरण शुक्ल को 1967 में मंत्री बनाया. राजमाता सिंधिया ने श्यामाचरण शुक्ल को अपने पाले में लाने की कोशिश की.. बकायदा मुख्यमंत्री का पद भी ऑफर किया... लेकिन श्यामाचरण शुक्ल ने इसे ठुकरा दिया. वहीं दूसरी ओर विंध्य के रामपुर बधेलान से विधायक गोविंदनारायण सिंह की महत्वकंक्षा जोर मार रही थी. तो राजमाता सिंधिया ने गोविंदनारायण को यही ऑफर दिया. गोविंदनारायण सिंह तो तैयार ही बैठे थे.. अविभाजित मध्यप्रदेश के कांग्रेस विधायक बृजलाल वर्मा, गणेशराम अनंत भी मंत्रिमंडल में शामिल न किये जाने के कारण डीपी मिश्र से नाराज चल रहे थे.... छत्तीसगढ़ के एक और नेता शारदाचरण तिवारी ने भी विधायकों को तोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई. कुल मिलाकर कांग्रेस के 36 विधायक तोड़ लिए गए. इन विधायकों को दलबदल करने से रोका जा सकता था.... इस दल-बदल के बारे में कहा गया कि “विधायकों को मुंह मांगी रकम दी गई और कुछ चुनिंदा को मंत्री पद दिया गया... लेकिन डीपी मिश्र ने इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. थोड़ा ठहर के डीपी मिश्र के व्यक्तिव को समझने के लिए एक किस्सा आपकों सुनाते हैं. डीपी मिश्र के खिलाफ जब ये षडयंत्र चल रहा था. तो वो पचमढ़ी में थे. जब उन्हें विधायकों के पाला बदलने की बात बताई गई तो वे मुख्यमंत्री निवास चंपक में ताश खेल रहे थे.उन्होंने कहा ‘शुभस्य शीघ्रम’ उनका मानना था कि यदि किसी ने अपने ईमान और जमीर का सौदा कर लिया है तो उसे कतई नहीं रोकना चाहिए.. मिश्र को पचमढ़ी बहुत पसंद था और साल के कुछ महीने वे वहीं रहते थे. उस समय मुख्यमंत्री का एक बंगला, राज्यपाल की तरह, पचमढ़ी में था. आजकल यह चंपक बंगला टूरिज्म विभाग का होटल है..
दीपक तिवारी अपनी किताब राजनीतिनामा में लिखते हैं कि, 19 जुलाई 1967 को छतरपुर के विधायक लक्ष्मण दास ने विधानसभा अध्यक्ष को एक लिखित शिकायत दी....उन्होंने कहा कि गोविंद सिंह जुदेव उन्हें MLA रेस्ट हाउस के ब्लाक नंबर 2 से उठाकर ले गए, रात भर एक खंडहर में रखा,, जबरदस्ती दलबदल के कागज पर दस्तखत करवाए..

इसी बीच गोविन्द नारायण सिंह MLA रेस्ट हाउस की सीढ़ियों पर नोटों से भरा एक सूटकेस लिए बैठे थे और चिल्ला रहे थे 'पकड़ो पकड़ो भागने न पाए. भागने वाला व्यक्ति एक विधायक था जो गोविन्द नारायण से रिश्वत नहीं लेना चाहता था. यह घटना बताती है कि उस समय विधायकों की कीमत बंदूक की नोक पर लगाई जा रही थी..विधायकों का अपरहरण करके दिल्ली के पांच सितारा होटल में ठहराया गया.. जो राजमाता सिंधिया के दिल्ली वाले बंगले से नजदीक था..जहां विधायकों की मुलाकात डीपी मिश्र के दुश्मन मोरारजी देसाई और यशवंत राव चौहान से करवाई गई..चार दिन बाद सभी विधायकों को ग्वालियर के जयविलास पैलेस में रखा गया. और 28 जुलाई 1967 को सड़क मार्ग से भोपाल लाया . हालाकि रास्ते में गौतम शर्मा जैसे कई कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें रोकने की कोशिश की. लेकिन, नाकाम रहे. कहा जाता है इस दौरान इन बसों के आगे पीछे राजमाता की अपनी स्पेशल फोर्स के दर्जनों वाहन चलते थे.
इस- दल-बदल को डाकुओं का गिरोह भी मदद कर रहा था...विधायक विश्रामगृह में उस समय बहुत से डकैत दल और उनके सरगना ठहरे हुए थे...मध्यप्रदेश के इतिहास का यह काला पन्ना था, जिसमें पार्टी से चुने हुए विधायक को इतनी बड़ी तादाद में दूसरी पार्टी में ले जाने का प्रयास किया गया....विधानसभा में उस ऐतिहासिक पूर्व संध्या पर मिश्र ने जब अपने अपहरण हुए विधायकों से सम्पर्क करने की सोची तब तक बहुत देर हो चुकी थी. गोविन्द नारायण सिंह को जब मुख्यमंत्री मिश्र की इस योजना का पता चला तो उन्होंने इन विधायकों को जिनमें अपहरण हुए विधायक भी शामिल थे..तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष काशी प्रसाद पाण्डे के निवास पर रात्रि में रोकने का आग्रह किया.. उन्हें खतरा था कि कहीं मुख्यमंत्री वापस विधायकों को अपने पक्ष में न कर लें.
डीपी मिश्र सरकार में सचिव रहे नरोन्हा अपनी आत्मकथा में लिखते ..हैं कि उस रात विधायक विधानसभा अध्यक्ष काशी प्रसाद पाण्डे के बगले पर रूके थे. और सभी विधायक उनके बगीचे में घास पर ही सोते रहे.गोविन्द नारायण सिंह उन पर अपनी छोटी-सी बंदूक 275-रिगबे से निगरानी करते रहे.और विधायकों ने न तो भागने की कोशिश की और न ही इस संबंध में गोविंदनारायण सिंह से बात की. कहते हैं कि मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र को विधायकों के इस विद्रोह की जानकारी पहले से थी. लेकिन भरोसा था कि ऐसा कुछ नहीं होगा.. विद्रोह के पहले एक दिन शाम को जब अर्जुन सिंह और द्वारका प्रसाद मिश्र की शाम वाली मंडली ताश खेल रही थी. तब अर्जुन सिंह ने उनसे विधायकों में विद्रोह की बात कही.. मिश्र ने बड़े आत्मविश्वास से कहा कि उन्हें पता है और दल-बदल करने वाले विधायकों की सूची उनकी तकिए के नीचे पड़ी है.. क्योंकि डीपी मिश्र को लगता था कि ये जो षडयंत्र मेरे विरुध्द रचा गया है. इसकी जड़ अर्जुन सिंह हैं.. जबकि सच बात यह थी कि मुख्यमंत्री मिश्र तक वही सूचनाएं उनका पुलिस गुप्तचर भेजता था.. जिसे गोविन्द नारायण सिंह जाने देते थे.. गोविन्द नारायण गृह मंत्री थे और पुलिस विभाग उनके नियंत्रण में था.. गुप्तचर शाखा मुख्यमंत्री से कहती रही कि अर्जुन सिंह राजमाता के साथ षडयंत्र कर रहे हैं जबकि असल में गोविंदनारायण सिंह ऐसा कर रहे थे...

30 जुलाई 1967 को कांग्रेस से बगावत कर निकले विधायकों ने जनसंघ और समाजवादी नेताओं के साथ मिलकर एक नया गठबंधन बनाया, तो इसे नाम दिया गया. संयुक्त विधायक दल, यानी संविद. इस नई सत्ता की कमान मिली गोविंद नारायण सिंह को.... लेकिन असली रणनीतिक नेतृत्त्व राजमाता विजयाराजे सिंधिया कर रही थीं, जो उस समय करेरा से विधायक थीं. सरकार बनी तो ज़रूर, लेकिन यह एक ऐसी बेमेल गठबंधन की मिसाल थी..जिसमें हर कोई अपना अलग राग अलाप रहा था. जनसंघ की अपनी शर्तें थीं, समाजवादियों के अपने तेवर. कोई मंत्री बनने के लिए बड़े तालाब में कूदने की धमकी देता, तो कोई कांग्रेस में लौट जाने का इशारा करता. सौदेबाज़ी आम हो गई थी, और भ्रष्टाचार तो जैसे सांस लेने जितना सामान्य हो चला था. मंत्री आपस में भिड़ जाते, अफसर परेशान हो जाते, और सरकार का कामकाज मानो तमाशा बन गया था....हर दिन कोई नया किस्सा निकलता. जो अगले दिन अखबारों की सुर्खियां बन जाता. इस दौरान कांग्रेस के चाणक्य माने जाने वाले पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र सरकार से बाहर थे, लेकिन शांत नहीं. वो जबलपुर से भोपाल तक पदयात्रा पर निकल पड़े. जनता के बीच, सीधा संवाद, और सत्ता वापसी की तैयारी. संविद सरकार एक ऐसी राजनीतिक जुगलबंदी थी, जिसमें सुर कम थे और शोर ज़्यादा. यह सरकार भले ही 19 महीने ही चली. लेकिन अपने पीछे कई चटपटे किस्से छोड़ गई. जिसकी चर्चा अब भी होती है.
shivendra 
