Bihar Politics: सत्ता के सिंहासन से हाशिए तक, बिहार में कांग्रेस का गिरता सियासी ग्राफ, आखिर वजह क्या है

बिहार में कांग्रेस के पिछलग्गू बनने के कई कारण

Bihar Politics: सत्ता के सिंहासन से हाशिए तक, बिहार में कांग्रेस का गिरता सियासी ग्राफ, आखिर वजह क्या है

राइटर शिवेंद्र सिंह

Congress party decline in Bihar: कभी भारतीय राजनीति की धुरी रही कांग्रेस आज बिहार में अपने बजूद को बचाने के जद्दोजहद में लगी हुई है. आजादी के बाद से लेकर 1980 के दशक तक बिहार में Congress मजबूत  रही, लेकिन, सामाजिक बदलाव, मंडल राजनीति और संगठनात्मक कमजोरी ने धीरे-धीरे कांग्रेस की जड़ों को कमजोर कर दिया. पार्टी अब क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू बनकर रह गई है, खासकर लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के सामने.

कांग्रेस का स्वर्णकाल (1950–1980)

Congress political downfall: 1950 से 1980 तक कांग्रेस ने बिहार  में अपना कब्जा जमाए रखा. श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह, और जगन्नाथ मिश्रा जैसे नेताओं ने कांग्रेस का झंड़ा थामे रखा. केंद्र और राज्य में एकछत्र सत्ता होने से कांग्रेस का संगठन मज़बूत था, और जनता को भरोसा था कि विकास की धारा कांग्रेस से ही होकर निकलेगी. लेकिन, धीरे-धीरे जनता का भरोसा कांग्रेस से उठ गया. साथ ही भीतरी कलह ने पार्टी को अंदर ही अंदर कमजोर कर दिया. ज़मीनी कार्यकर्ताओं से कटाव, जातिगत समीकरणों की अनदेखी और आंतरिक गुटबाज़ी ने कांग्रेस को भीतर से खोखला कर दी. 

मंडल युग और सामाजिक बदलाव (1990–2000)

1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों ने देशभर की राजनीति का समिकरण ही बदल दिया. और मंडल राजनीति का केंद्र बना बिहार. पिछड़ी जातियों का राजनीतिक उभार हुआ.  इसी दौर में लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं का उदय हुआ जिन्होंने "अति पिछड़ा बनाम सवर्ण" की राजनीति को मज़बूती दी और कांग्रेस की सामाजिक राजनीति को हसिए पर खड़ा कर दिया . कांग्रेस, जो परंपरागत रूप से ऊंची जातियों और मुस्लिम वोटों पर निर्भर थी, इस बदलाव के लिए तैयार नहीं थी. लालू ने पिछड़ी जातियों के साथ मुसलमानों को भी जोड़ लिया. जो, पहले कांग्रेस का मुख्य वोट बैंक हुआ करता था. इससे कांग्रेस का आधार खिसकने लगा. 

राजद की छांव में कांग्रेस (2000–2024)

2000 आते- आते कांग्रेस को बैसाखी की जरूरत महसूस हुई तो, कांग्रेस ने राजद के साथ गठबंधन कर लिया. और हमेशा छोटी पार्टी की भूमिका में रही. तब से कांग्रेस का कोई बड़ा चेहरा राज्य में नहीं उभरा. पार्टी ने न तो संगठन पर ध्यान दिया, न ही ज़मीनी स्तर पर काम किया. इस बीच, राजद ने यादव-मुस्लिम समीकरण को मजबूत किया और कांग्रेस धीरे-धीरे उसी वोट बैंक के एक 'उपांग' में बदल गई. राजद के साथ कांग्रेस ठीक-ठाक सीटों में चुनाव तो लड़ती रही. लेकिन ज़्यादातर सीटों पर चुनाव भी हारती रही. लोकसभा चुनावों में तो कांग्रेस स्थिती और भी बदतर होती गई. 

वर्तमान स्थिति और चुनौतियाँ (2024 के बाद)

2024 के लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस बिहार में हाशिए पर रही. जनता अब कांग्रेस को विकल्प के रूप में नहीं देखती. युवा मतदाता कांग्रेस को "पुरानी पार्टी" मानते हैं, जिसकी न तो स्पष्ट नीति है, न कोई ज़मीनी नेता. जो थोड़े-बहुत नेता हैं, वे दिल्ली दरबार में व्यस्त हैं और जनता से कटे हुए हैं. जिससे बिहार में कांग्रेस का संगठन कमजोर होता गया है. बूथ लेवल तक कार्यकर्ता नहीं बचे. कोई करिश्माई चेहरा नहीं जो पार्टी उबार सके. पार्टी के कोर वोटर्स मुस्लिम और स्वार्ण  कांग्रस की जगह अन्य दलों के साथ चले गए. मंहगाई, बेरोजगारी जैसे जनता के मुद्दों पर कांग्रेस ने सिर्फ बयानबाजी की, जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं किया. बिहार में कांग्रेस का पतन किसी एक घटना का परिणाम नहीं, बल्कि दशकों की रणनीतिक विफलताओं, नेतृत्वहीनता और बदलते सामाजिक समीकरणों की उपेक्षा का नतीजा है. अगर कांग्रेस को फिर से उभरना है, तो उसे न केवल संगठन पर काम करना होगा, बल्कि नए सामाजिक समीकरणों को समझकर ज़मीनी लड़ाई को लड़ना होगा. वरना यूं ही श्रेत्रिय पार्टियों की ‘पिछलग्गू’ बनी रहेगी न निर्णायक, न प्रभावशाली